Monday, June 30, 2008

तुम ही तुम याद आते हो



तन्हाई के आलम में तुम ही तुम याद आते हो

कभी कुछ गुनगुनाते हो कभी तुम मुस्कुराते हो

नज़ारे छिप गए हैं सब, तुम्हारा अक्स नज़रों में

करम इतना ही क्या कम था जो रातों को जगाते हो

अकेला हूं मैं महफ़िल में, कोई नज़रें इनायत हों

हमी से प्यार है फिरभी भला क्यूं दिल जलाते हो

निगाहे नाज़ से तूने हमेशा ही किया घायल

है ख़ाली आज क्या तरकश, जो तुम नज़दीक आते हो

सभी हैं बेख़बर तुझसे, तुझी से इल्तज़ा करते

दवा-ए-दिल के बदले तुम भी, हौले से मुस्कुराते हो ।

1 comment:

विकास बहुगुणा said...

पता है तुमको हम चौथी से आगे पढ़ नहीं पाए
मगर फिर भी हमीं से तुम स्पेशल की कॉपी लिखाते हो

बहुत नाइंसाफी है