Tuesday, August 12, 2008

उसका ख़त



उसका ख़त

जो शुरू होता था 'प्यार' से

प्यार जो जगाता था अपनापन

और जोड़ देता था मुझे सीधे मेरे यार से

फ़िर शुरू होता था सिलसिला

उसकी नाराज़गी के दौर का

जहां होती थी सिर्फ नाराज़गी

कड़ुवाहट का अंश कभी न मिला

वो ख़त

ख़त्म होता था एक कशिश के साथ

और दिलाता था मुझे एहसास

कि लिखना है उसे एक ख़त मीठा सा

आहिस्ता-आहिस्ता बन गया वो प्यार

महज़ एक सामान्य सा अभिवादन

और अंत एक बेजान रस्म अदायगी

फ़िर एक दिन अचानक

शब्द और शायद रिश्ते भी गए ठहर

बदल गया मिजाज़, पूरा का पूरा आलम

वो मेरा यार, हो गया मुझसे ग़ैर

आज मिला उसका ख़त

शुरुआत से ही 'कैसे हो' का प्रश्न दागता

प्रश्न या अभिवादन ? क्या कहें

था इसमें मेरे यार का दिल भी झांकता

जहां सिमट गया था दायरा मेरे वास्ते

भटक गए थे मेरी ओर आने के हर रास्ते

और अंत में एकदम ख़ाली

मेरी ही तरह बिल्कुल एकाकी-तुम्हारी अनामिका

ऐसा क्यूं

हमारे रिश्तों को देकर प्यारा सा नाम

यूं आसमां से ज़मीं पर गिराया क्यूं

कोई तो सबब होगा

इस बात का, तुम्हारे अंदाज़ का

अब तो सिर्फ अंदाज़े पर ही टिकी है उम्मीद

किसी रोज़ बदलेगा वो यूं

पा सकूंगा मैं फ़िर वही शुरुआत

तुम्हारा ख़त प्यार भरा

अंत तक प्यार के साथ ।।

Tuesday, August 5, 2008

लकड़ी का बुत



एक बुत बनकर बैठना

किसी से रूठकर

बहुत आसान है

कि कोई आए

और मनाए

या फ़िर

जानबूझकर किसी को सताने को

उससे बेख़बर, चुपचाप

एक बुत सा बैठ जाना भी नहीं है मुश्किल

कि अपनी उपेक्षा से क्षुब्ध

वो समझे तुम्हारा 'श्री'

और भरमाए तुम्हारा दिल

ये भी नहीं है तनिक मुश्किल

कि

बन जाओ बुत कि

उतारे कोई तस्वीर

गढ़े तुम्हारा रूप-लावण्य, अंग-प्रत्यंग

और बढ़ाए अपनी ख्याति की जागीर

लेकिन

एक पुरजवां महफ़िल में

सबके बीच चुपचाप

एक बुत बनकर बैठना कैसा होता है

पूछो कोई उससे

जो घिरा है कथित अपनों से

उनके व्यंग्यरूपी सवालों से

कि जनाब, कहां खोए हैं आप ?

ये सवाल कोई आमंत्रण नहीं है

बल्कि है एक घिनौनी कोशिश

उस अहसास की शिद्दत को कुछ और बढ़ाने की

कि हां,

साहिल डूब रहा है

मगर अफ़सोस साथियो !

मैं तो एक लकड़ी का बुत हूं

जो गल कर मिटने से पहले

तुम्हारे अनंत गहराइयों में दफ़न करने के बाद भी

तैरता रहेगा

सबसे ऊपर

बहुत आगे

बहुत दूर ।।

Saturday, August 2, 2008

आदत है उनकी



अहद-ए-वफ़ा तोड़ना आदत है उनकी

राह में दिल जोड़ना आदत है उनकी


इस ज़माने में कहीं पीछे न रह जाएं

दोस्तों को छोड़ना आदत है उनकी


अब जो बिछड़ा, कौन दोबारा मिलेगा

पल में मुंह को मोड़ना आदत है उनकी


हैं बहुत गुंचे, महकने के लिए

शाख़ को यूं तोड़ना आदत है उनकी

तो, बदल ली चाल, न घबराइये (जानता हूं)

हार पे जी-तोड़ना, आदत है उनकी ।।

Tuesday, July 29, 2008

ना तो अच्छा, ना तो सादा



मैं न अच्छा, मैं न सीधा

मैं न सुंदर, मैं न सादा

दुनिया ने है देखा मुझे

परतों में ही बस आधा

बातें हैं बेयक़ीनी

लहज़ा, हां, शरीफ़ाना

ताल्लुक़ है वहीं तक बस...

न तो थोड़ा, ना तो ज्यादा

तितली सा फरेबी

चटकीला, है मन काला

निभना भी है मुश्किल

न तो मीरा, ना तो राधा

मिन्नत हैं बेअसीरी

कोई मुझको न समझाना

मुझे याद नहीं अब कुछ

ना तो रिश्ता, ना तो वादा

जीने की अदा सीखी

दुनिया ! तुझी से जाना

ज़िंदा है वही बस जो

ना तो अच्छा, ना तो सादा ।।

Sunday, July 13, 2008

इनसे मिलिए



मैने कभी नहीं सुना-तुम बहुत अच्छे हो

बस देखा उसकी झिलमिलाती आंखों में बसे समर्पण को

और अपने प्रति इस समर्पण को ही मान लिया

कि हां, उसकी नज़रों को मैं भाता हूं

मैने कभी नहीं सुना-तुमसे दूर नहीं रह सकती

बस देखा हर रोज़ दरवाज़े पर उसे इंतज़ार करते

उसकी सूनी आंखों का इंतज़ार...

जो मुझे आते देखकर थोड़ा सा झुक जाती थी


उसकी इस अदा को मैंने समझा शरमाना

और मान बैठा, उसका इंतज़ार मेरे वास्ते ही था

आज अचानक वो मिली मुझसे एक नए अंदाज़ में

पूरी सज-धज के साथ

उसकी आंखें जो हमेशा मुझसे बात करती थीं

आज बहुत बेबाकी से टिकी थीं मुझ पे

मानों दे रही हों उलाहना-तुमने बहुत देर कर दी

या कि तुम कमज़ोर थे

तुम जो भी हो

अब ना ही मेरे लिए अच्छे हो

ना ही अब मुझे तुम्हारा इंतज़ार है

और

वो बेबाक़ नज़रे घूमीं पूरी शोखी के साथ

वो नज़रे मुझसे करा रहीं थीं तार्रुफ़

इनसे मिलिए

ये हैं मिस्टर....।।

Monday, July 7, 2008

कारवां गुज़र गया


बेताल के संगी-साथियों के लिए महान कवि गोपालदास 'नीरज' की एक अमर रचना....

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से

लुट गए श्रृंगार सभी बाग़ के, बबूल से

और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे ।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई

पांव जब तलक उठे कि ज़िंदगी निकल गई

पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई

चाह तो निकल सकी ना पर उमर निकल गई

गीत अश्रु बन गए, शब्द हो हवन गए

रात के सभी दिए धुआं-धुआं पहन गए

और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके

उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा

क्या स्वरूप था कि देख आइना सिहर उठा

इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा

थामकर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर छली वो हवा यहां चली

लुट गई कली-कली कि घुट गई कली-कली

और हम दबी नज़र, देह की दुकान पर

सांस की शराब का ख़ुमार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

आंख थी मिली कि अश्रु-अश्रु बीन लूं

होठ थे खुले कि चूम हर नज़र हसीन लूं

दर्द था दिया गया कि प्यार से यक़ीन लूं

और गीत यूं की रात से चराग़ छीन लूं

हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर

वह उठी लहर की ढह गए किले बिखर-बिखर

और हम लुटे-लुटे, वक्त से पिटे-पिटे

दाम गांठ के गवां, बाज़ार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

मांग भर चली थी एक जब नई-नई किरण

ढोलकें धुनक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण

शोर मच गया कि लो चली दुल्हन-चली दुल्हन

गांव सब उमड़ पड़ा, बह उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भी, गाज़ एक वह गिरी

पुंछ गया सिंदूर, तार-तार हुई चूनरी

और हम अजान से, दूर के मकान से

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

एक रोज़ एक गेह, चांद जब नया जगा

नौबतें बजीं, हुई छठी, डठौन रतजगा

कुंडली बनी कि जब मुहूर्त पुण्यमय लगा

इसलिए कि दे सके न मृत्यु जन्म को दग़ा

एक दिन पर हुआ, उड़ गया पला सुआ

कुछ न कर सके शगुन, ना काम आ सकी दुआ

और हम डरे-डरे, पीर नयन में भरे

ओढ़कर कफ़न पड़े, मज़ार देखते रहे

चाह थी न किंतु बार-बार देखते रहे

कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे ।।

Friday, July 4, 2008

आए न कोई आंच...



दोस्ती की बात छिड़ी जब भी कहीं पर

मैं आ के रुका हूं सदा, ऐ दोस्त तुझी पर

दिल तो किसी को दे चुके हैं पहले से ही हम

अब करते हैं इज़रा-ए-वफ़ा, तेरे ही दम पर

दोस्ती को पाक़ सदा समझेगा भला कौन

है सारे जहां की नज़र, बस तुम पे और हम पर

हाथों को है हर वक्त मेरे रोका तुम्ही ने

जब-जब भी ये पहुंचे हैं किसी, भरते ज़ख़्म पर

मैं मांगता हूं ये दुआ परवरदिगार से

आए न कोई आंच मेरे निगहबान पर ।


Monday, June 30, 2008

तुम ही तुम याद आते हो



तन्हाई के आलम में तुम ही तुम याद आते हो

कभी कुछ गुनगुनाते हो कभी तुम मुस्कुराते हो

नज़ारे छिप गए हैं सब, तुम्हारा अक्स नज़रों में

करम इतना ही क्या कम था जो रातों को जगाते हो

अकेला हूं मैं महफ़िल में, कोई नज़रें इनायत हों

हमी से प्यार है फिरभी भला क्यूं दिल जलाते हो

निगाहे नाज़ से तूने हमेशा ही किया घायल

है ख़ाली आज क्या तरकश, जो तुम नज़दीक आते हो

सभी हैं बेख़बर तुझसे, तुझी से इल्तज़ा करते

दवा-ए-दिल के बदले तुम भी, हौले से मुस्कुराते हो ।

Friday, June 27, 2008

तेरी आग़ोश में...



ये बारिश का मौसम, ये भीगी हवाएं

ये नम आसुओं से हुई हैं निगाहें

ये मौसम गुलाबी, ये दिल की सदाएं

ये वीरानियां, सिर्फ तुम याद आए

फिज़ाओं में बिखरा हुआ है तरन्नुम

समां हो चला है ज़रा आशिकाना

घटाएं भी बल खा के इतरा रही हैं

कमी सिर्फ ये है कि तुम याद आए

तेरे देश में छोड़ आया जो मौसम

सुहानी थी हर शाम अब वो नहीं है

तेरी आग़ोश में सारे ग़म से परे था

अब हर एक ग़म में तुम्ही याद आए।

Wednesday, June 25, 2008

जान भी कमतर लगे है...



इस वफ़ा का क्या सिला दूं जान तुझको

जान भी कमतर लगे है जान मुझको

मेरी हसरत और मेरी आरजूएं

सब हैं तेरे प्यार की सौग़ात मुझको

क़दमपोशी को सदा नज़रे बिछाए

इस वफ़ा ने ही सिखाया प्यार मुझको

इस नशेमन ने किया रुसवा तुझे जो

मरमरी हाथों ने फिरभी थामा मुझको

माफ़ करना ऐ मुझे जान-ए-वफ़ा

अब जो समझा हूं नहीं भूलूंगा तुझको ।

Saturday, June 21, 2008

तेरे निसार प्रियतमा


तेरे निसार प्रियतमा,

जो तुझको मुझसे प्यार है

तेरा बयान बा-ख़ुदा

दिल मेरा शुक्रगुज़ार है।

है ख़ुदा गवाह, ये आसमां

दिल टूटने के ख़ौफ़ से

मैं न कह सका तुझे कभी

दिल मेरा बेक़रार है

मेरा प्यार तेरे नयन में

मैं उसी से था कुछ यूं बंधा

क्यूं तू न ये समझ सकी

मेरा ठहरना इक़रार है ।

'मुझे सिर्फ तू ही पसंद है'

तेरे लब हिले, मेरा दिल गया

और शर्मीली उन नज़रों का

मुझे आज तक वो ख़ुमार है

तेरे निसार प्रियतमा...।।

Thursday, June 19, 2008

वो तो खाली बात के छलिया


हम तो खाली बात के रसिया

इश्क़ न कर पाए

वो तो खाली बात के छलिया

इश्क़ न कर पाए

हमने ज़ुबां खोली तो उसमें

दिल भी बोल उठा

वो तो खाली चुप्पी साधे

मंद-मंद मुस्काए

अपने धड़कते दिल को हमने

क़दमों पे बिछा दिया

नाज़-ओ-अदा से फ़ेर के मुंह

वो हमको तड़पाए

कितना लंबा सफ़र तय किया

सांसें उखड़ गईं

आह ! न निकली, वाह ! न निकला

चार क़दम न आए ।।

Wednesday, June 18, 2008

रिश्ता यूं ही सही...


उनके जवाब आए, कुछ तो सुकूं मिला

लेकिन है उन जवाबों में अब भी बहुत गिला

आया भी जो जवाब तो पोशीदा इस तरह

हसरत थी दिल खुलेंगे, दिल ही नहीं मिला

तल्ख़ी भरे वो नक्श तहरीर में दिखें

बातों में था कभी जो, जवाबों में न मिला

क़तओं की चंद ज़िंदगी में, गुज़री तमाम उम्र

आया जो है जवाब, वो है इश्क़ का सिला

चलिए यही क्या कम है, अदावत भी है कबूल

रिश्ता यूं ही सही, वो अगर हमसे न मिला ।।

Tuesday, June 17, 2008

ताजमहल था ख्वाबों का...



एक नशा सा तारी था, रफ्ता-रफ्ता उतर गया

ताजमहल था ख्वाबों का, ज़र्रा-ज़र्रा बिखर गया

धूप खिली थी आंगन में, लम्हा-लम्हा सिमट गई

चांद टिका था खिड़की पे, हल्का-हल्का उतर गया

फूल खिले थे गुलशन में, पत्ता-पत्ता ज़र्द हुआ

स्याह बहुत था बादल ये, टुकड़ा-टुकड़ा बिखर गया

ताब बहुत था सांसों में, धड़कन-धड़कन होम हुई

झील सी गहरी थी आंखें, क़तरा-कतरा तरस गया

एक इशारे में वो जादू, जाते-जाते जान बची

जोश बहुत था इस दिल में, डरता-डरता ठहर गया ।

Sunday, June 15, 2008

दिल है दरिया उनका



दस्त-ओ-पा उनके कभी तंग न थे

लेकिन, वो हुनरमंद भी कम न थे

सो, शाही उनकी न थी कबूल हमें

ज़रा से तौर-तरीके हमें पसंद न थे ।

हर वक्त बनावट, वो कसीदेकारी

बात वो बात में उलझा के बनावे सारी

उस पे, सीधी-सादी ये समझ बेचारी !

ये पेच-ओ-ख़म के सलीके हमें पसंद न थे ।

कभी तो अब्र सा बरसें, कभी चमक भी नहीं

जान कहकर कभी लिपटें, छोड़ जाएं कहीं

आज जो है ग़लत, कल तक तो वो बतावे थे सही

रस्म-ओ-राह के ये अंदाज़ हमें पसंद न थे ।

कुछ किया था जभी तो बात उठी

बात उनसे न हो सकी जभी तो बात उठी

बस इसी तर्क-ए-वफ़ा पर ही वो भड़क उठी

वफ़ा में ऐसे दिखावे हमें पसंद न थे ।

वगर्ना, दस्त-ओ-पा उनके कभी भी तंग न थे ।।

Friday, June 13, 2008

एक तस्वीर



सारे रंग जोड़कर उसकी इक तस्वीर बनाई

शायद फिरभी कोई कमी थी, उसको रास न आई

क़तरा-क़तरा धूप जुटाकर रंग भरा चेहरे में

उसने फेर लिया चेहरा और शाम घनी घिर आई

अप्सराओं का रूप चुराकर उस पर लुटा दिया

उसने नज़र टिका दी मुझपे और ली इक अंगड़ाई

जाने कितनी कलियों का रस लेकर होठ गढ़े

फिक़रे लिए हज़ार वो बस हौले से मुस्काई

क़ायनात ठुकरा कर मेरी वो इठला कर चल दी

क्या गु़रूर था उसमें, मुझसे जाने कौन लड़ाई

अब इन ख़ाक़ों में कैसे में किसके रंग भरूं

निहां हुआ महबूब मेरा और मीलो है तन्हाई ।

Wednesday, June 11, 2008

अपने नाम का ख्याल रखिएगा !



कितने रंगों में ढली है

फूल सी, लगती कली है

तितलियों सी घूमती है

नाम तो देखो मगर...


चेहरा मानो दुपहरी है

ज़ुल्फ़ है या शब घिरी है

लब के शोलों की लड़ी है

नाम तो देखो मगर...


हर अदा में बिजली सी है

बातें जैसे कतरनी है

नज़रों में शम्मा जली है

नाम तो देखो मगर...


हंसी उसकी बे-दिली है

करती हरपल दिल्लगी है

क्या बला की कारीगरी है

नाम तो देखो मगर...


है सही पर कैसे कह दूं

नाम में रखा है क्या

संग मेरे अब माहज़बीं का

नाम है बस, और क्या ?

Saturday, June 7, 2008

ऐयारी पे मिटे



मासूम चेहरे की अदाकारी पे मिटे

हम तो उस शोख की ऐयारी पे मिटे

क्या ख़बर थी, वो मेरा यार करेगा ऐसा

हम तो उस यार की दिलदारी पे मिटे

लब तो टकराए, न छू सके दिल मेरा

हम तो लब-ए-अफशां की फुसूंकारी पे मिटे

उसकी आग़ोश में सूझे है कहां फिर कुछ भी

हम तो उन रेशमी ज़ुल्फ़ों की गिरफ्तारी पे मिटे

वो चले जाते हैं, चले आए जैसे

हम तो उस हसीं शै की ख़ुमारी पे मिटे

किस अदा से वो बनावे है बातें कितनी

हम तो उस नादां की समझदारी पे मिटे ।

क्यों उलझते हैं हम भी ऐयारों से



सफ़ीने क्यों उलझते हैं किनारों से

क्यों उलझते हैं हम भी ऐयारों से

कल मिला था मुझे रहजन, मगर छोड़ दिया

आज मोहसिन ने ही ज़ख्मी किया तलवारों से

धूप हल्की थी, हवा भी पुरनम

बिछड़ी मंज़िल यूं, कि पूछा था मददगारों से

लाख चाहा न खिल सका ये दिल

हो तो हो महफ़िल जवां दिलदारों से

डूबना ही था सफ़ीना, खुशी जो उनकी थी

क्या भला पार लगाता उसे पतवारों से ।

Friday, June 6, 2008

तुम्हारा अंदाज़ मेरे ख्याल से मिलेगा कब ?


तुम भी जी रहे थे अपने अंदाज़ में

मैं भी था खोया खोया अपने ख्याल में

तुम भी खुश थे

मैं भी खुश था

लेकिन शायद कहीं कोई कमी थी

एक दिन अचानक तुम मिले

तुम्हारा अंदाज़ बदला

और मेरे ख्यालों में भी कोई बसने लगा

धीरे-धीरे किसी 'कमी' का अहसास बहुत शिद्दत से बढ़ा

मेरे ख्यालों में अब सिर्फ तुम थे

और तुम्हारा भी अंदाज़ सिर्फ मुझे बयां करने लगा

गोकि, हम एक हो गए

एक-दूजे के लिए हो गए

मगर वक्त ने फ़िर करवट बदली

और तुम देख रहे हो

मैं अब और गहरे ख्यालों में गुम हूं

तुम्हारी चमकती पेशानी और पैरों की रुनझुन

गवाह है तुम्हारे नए अंदाज़ का

वो 'कमी' जो कभी हमें पास लाई थी

कितनी गहरी और स्याह हो गई है अब

सोचता हूं, ये वक्त फ़िर करवट लेगा ?

तुम्हारा अंदाज़ मेरे ख्याल से मिलेगा कब ?

Thursday, June 5, 2008

मनाऊं भी तो कैसे



मनाऊं भी तो कैसे, खड़ा सारा
ज़माना

वहां रंगीनियां हैं, इधर छाया वीराना

समझ उनमें बहुत है, करें क्यूं सौदा ऐसा

महल ऊंचे क्या कम हैं, ये खंडहर पुराना

हंसी है बेशक़ीमती, खुद उनको भी ख़बर है

अदा थी बस ज़रा सी, हुआ कोई दीवाना

नई उम्रों का क्या है, अहद भी क्या बला है

वो मौसम देखते हैं, यहां गुज़रा ज़माना

मिला दिल ही नहीं बस, सभी कुछ तो मिला है

नहीं मंज़ूर उनको, दिल के हाथों गंवाना

नफ़ा-नुकसान भी तो, खुदी को सोचना है

कहां क़िरदार डूबा, किसी को क्या बताना ।।

Tuesday, June 3, 2008

कि पत्थर दिल न हो जाए पत्थर


इसी डर से मैं बुतख़ाने न पहुंचा

कि पत्थर दिल न हो जाए पत्थर

जहां बसते हैं नानक, सिर नवाया

है रिसता फ़िरभी खूं यूं, लगी फ़िर आज ठोकर ।

था मेरे संग वो संगदिल

मगर मुझसे कटा था

झुका तो साथ में सिर

उठा तो वो उठा था

बड़ी हसरत थी उसकी, मिटी है चूर होकर ।

क़दम हमराह थे तब

ज़ुबां भी बेयक़ीनी बा-अदब

उड़ चली पाक़ीज़ा ख़ुश्बू

घटा बाहर घिरी जब

कहें किस से भला क्या, गिरी है बिजली मुझ पर


इसी डर से मैं बुतख़ाने न पहुंचा

कि पत्थर दिल न हो जाए पत्थर ।।

Saturday, May 31, 2008

'पी' से गोरी रूठी जब से...



रात गुज़रती करवट-करवट

दिन कटता है आहट-आहट

'पी' से गोरी रूठी जब से

बियावान है पनघट-पनघट ।

सूरज की किरणें चुपके से

छूकर मुझे जगाती थीं

हवा गुनगुना के कानों में

उसके गीत सुनाती थी

आसमान में घिरी घटाएं

मिलन की हूक उठाती थी

शाम ढले जब दीप जले

पनघट पे गोरी आती थी

चांद फ़लक पर तभी निकलता

जब वो पहलू में छिप जाती थी ।

लेकिन जब से गोरी रूठी

क़ायनात भी रूठी-रूठी ।

चांद चिढ़ाता है अब मुझको

शाम दुखाती हरपल दिल को ।

आसमान में घिरी घटाएं

आंसू बनकर आती हैं

हवा ठिठक कर थमी हुई है

किरणें आग लगाती हैं ।

आंख खुले तो जग लगता है

मानो जैसे मरघट-मरघट

पी से गोरी रूठी जब से

बियावान है पनघट-पनघट ।

Friday, May 30, 2008

नेमत



बदलते हुए

मैंने सिर्फ वक्त ही नहीं

लोगों को भी देखा है

बदलते हुए

मैने सिर्फ औरों को नहीं

अपनों को भी देखा है

वो अपने जो आज भी मेरे हैं

शायद मैं ही उनका नहीं रहा

लेकिन इस बात का शिकवा क्यूं

क्योंकि ये भी अहसान है उनका

बदलें हैं अपने

तो बदले हैं ग़ैर भी

और जो साथ अपने ले गए

हिमालय से भी ऊंचे शिखरों पर

तलहटियों में जीने की कूवत

और लड़ने का हुनर भी

नेमत है उन्हीं की ।।

चले थे साथ तुम और हम



कश-आं-कश में अजब सी आज, पड़ा रिश्तों में पेच-ओ ख़म

वहां ग़र दोस्त हैं तो भी, यहां दुश्मन नहीं हैं हम

वगरना चंद लम्हो में, सुलझ जाता ये किस्सा यूं

रहेंगे दोस्त के बनकर, बला से तुम कहो बरहम

मगर शिकवों से क्या हासिल, करें क्यूंकर शिकायत भी

नया तूने किया है क्या, जो रोएं नए सिरे से हम

अगरचे पूछ बैठा कोई, मुझसे डूबने का राज़

तो फ़िर ऐ छोड़ने वाले ज़रा कहियो, कहें क्या हम

तुम्हारा 'आज' हां सच है, मगर तारीख़ पीछे है

क़दम दो ही चले पर, चले थे साथ तुम और हम

Thursday, May 29, 2008

कर लेना मुझको याद...



यकलख़ जो आ गई है मेरी याद शब्बा ख़ैर


कर लेना मुझको याद यूं ही तुम ब-वक्त-ए-सैर

मैं क्यूं कहूं कि कैसे रहूंगा तेरे बग़ैर

जा रहिए वां खुशी से मनाउंगा रब से ख़ैर

देवों के इंद्र के भी हैं छूटे सगे-औ-दैर

यां मैं पड़ा हूं तन्हा नहीं किस्सा ये कोई ग़ैर

क्यूं कर न सह पाऊं तेरा रस्म-ओ-राह-ए-ग़ैर

बेशक़, करो मुआफ़ हूं तंगी-ए-दिल पे ज़ेर

डूबा मैं गोकि खींचा था उसने, न फ़िसले पैर

दिल को है फ़िरभी दोस्त, अक्ल से अजब सा बैर।।

Wednesday, May 28, 2008

रवायत




भरी महफ़िल में हाल-ए-दिल जो पूछा आपने हमसे

बजा तरह से कर दी पेश साहेब दोस्ती हमसे

कि देखा और झट से पूछ बैठे-हाल कैसा है

न कोई दिलनवाज़ी की न कोई बंदिगी हमसे

समझ में आ गई हमको रवायत ये नई उनकी

अदूं को जा संभाले फ़िर जो वो छूटें ज़रा हमसे

कहें क्या आपकी तर्ज़-ए-तपाकी पर भला अब हम

कशिश कुछ आज कमतर है, अदावत न सही हमसे

यहां ये आ पड़ी मुश्किल कि रोकें किस तरह उनको

उधर वो मुस्कुरा कर दूर होते जा रहे हमसे।।

अब तक यही धोखा है




एहसास की रुसवाई का

इक ये भी तरीका है

महफ़िल में है पूछा ग़म-ए-दिल

क्या ख़ूब सलीका है ।

मैने भी ये सोचा है

ना लूंगा तेरा नाम

साहेब न बुरा मानिए

सब आपसे सीखा है ।

गर्दन न झुकी थी कभी

सजदे में किसी के

क्यूं यां झुकी, न पूछिए

ये उसका दरीचा है ।

गुज़रे थे किसी रोज़

गर्दन किए टेढ़ी सी

मैं समझा हया मुझसे

अब तक यही धोखा है ।।

Sunday, May 25, 2008

मुझे डर लगता है




फ़िसलन भरे उस मोड़ से, निकल आया मैं

रिश्ते टूटे, हाथ छूटे

फ़िरभी, खुद तक आया मैं

सिर उठा के, सांस भर के, मुस्काया मैं

मैं नहीं डरता

ज़ख्म सी सकता हूं अपने

खुद संभल सकता हूं मैं,

मैं नहीं डरता

फ़ैसला कोई करे, मंज़िलें तय कोई करे

उस पे चल सकता हूं मैं,

मैं नहीं डरता

ज़र्द मौसम और सफ़र तन्हा

हूं अकेला ही मगन मैं,

मैं नहीं डरता

इस सफ़र में, फ़िर अचानक यूं हुआ

राह में, बेसाख्ता कोई मिला

दिल में झांका, ज़ख्म कुछ ऐसे छुआ

पहली दफ़ा, तन्हाई का आलम जगा

जाने क्यूं दिल, ज़रा तलबग़ार हुआ

ज़ख्म कुछ और खुले, दिल भी कुछ और खुला

इतना कि हमसफ़र मेरा भी, अज़ार हुआ

एक लम्हा भी न गुज़रा और वो जुदा हुआ

वो गया क्या...

अब तो खुद से भी जुदा हूं मैं

कितना बेबस और तन्हा सा हूं मैं

अब, मुझे डर लगता है ।।

Friday, May 23, 2008

दो पल



आओ याद कर लें बीते पल, आख़िरी बार


बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा

पढ़ लें एक-दूजे के नयनों को, आख़िरी बार

बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा।

तुझे याद है वो शाम

मेरी एक झलक को, गुज़री थीं मेरे सामने से

मुझे आज भी याद है वो सुबह

एक बहाना लेकर आया था मैं मिलने को तुझसे

याद कर लें वो शामें, वो सुबहें, आख़िरी बार

बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा ।

दिनभर की थकन के बाद मेरे लिए तुम्हारा वो जतन

एक-एक चीज़ मेरी पसंद की तुमने बनाई थी प्यार से

फ़िरभी ठिठका था ना आने को, थोड़ा सा मेरा मन

क्या आज की हक़ीक़त से...या होने वाले प्यार के अहसास से

सोच लें सब गत-आगत, आख़िरी बार

बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा ।

तुम्हारी पायलों की रुनझुन से बढ़ती धड़कने

और उन्हें अपने ही मरमरी हाथों से थामना

सारी खुशियां लेकर आई थीं तुम मेरे सिरहाने

एक बुझती हुई लौ को दी थी रौशनी अपने चेहरे सेदेख लें वो रौशनी, आख़िरी बार

बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा ।

मेरे ख्वाबों को अपनी आंखों में सजाकर

एक अहद के साथ दूर हुई थीं तुम मुझसे

उन ख्वाबों के हक़ीक़त में बदलने का इंतज़ार

थाम के सांस कर रहा हूं कब से

सुन लो इन रुकी हुई धड़कनों को आख़िरी बार

बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा ।

अब न दिल है, न धड़कन, न कोई इंतज़ार

बीती यादें, मायूस जिस्म और मेरी हार

कट गए दो पल भी, हो गए जुदा सरकार

ता उम्र का रोना मेरा हिस्से आया है हर बार ।

Tuesday, May 20, 2008

'जन्नत' की हक़ीक़त



जन्नत की एक हक़ीक़त ग़ालिब साहब ने देखी थी. एक 'जन्नत' मैने भी देखी है. हालांकि दोनों बिल्कुल जुदा हैं लेकिन अहसास बिल्कुल एक सा है. ग़ालिब साहब की तो मैं पैरों की धूल भी नहीं इसीलिए जो बात वो फ़क़त दो लाइनों में कह गए, अपनी बात (वही बात नहीं, क्योंकि वो तो कोई दूसरा कह ही नहीं सकता) कहने के लिए मुझे इतना कुछ लिखना पड़ रहा है. लेकिन अपने दोस्तों के लिए कुछ फ़र्ज़ तो हमारा भी बनता ही है...

इक लड़की हसीन

एक लड़का जवान

और

दोनों की चाहत परवान

कितना ख़ूबसूरत उनमान !

अब दोनों हैं साथ

हाथों में हाथ

और

सच होती ख्वाब-ओ-ख्यालों की रात

फ़िरभी कितना परेशान !

खुशियां लड़की को प्यारी

लड़की, लड़के को प्यारी

और

हर तरफ फैली उधारी

अब ये नया मेहमान !

राह उसकी थी स्याह

साथ छूटा सभी का

और

जो होना था उससे पड़ा साबका

किसको नहीं था गुमान !

इक था लड़का जवां

इक थी लड़की हसीं

इक ने छोड़ा जहां

इक का उजड़ा जहां

'जन्नत' की है बस यही दास्तां

दोस्तो, अब न हो परेशां।।

Sunday, May 18, 2008

इश्क़ आफ़त है तो...


इश्क़ आफ़त है तो आफ़त ही सही

दिल नहीं उनकी दिल्लगी थी, सही

नज़रें शर्माईं, लजाईं न सही

वो हंसी, माना फुसूंकार सही

हाथ में हाथ का वादा न सही

हमक़दम बनने का भी कोई इरादा न सही

बातें उनकी थीं छलावा ही सही

तल्ख़ अंदाज़ उनकी आदत ही सही

हर इक बात पे उनसे मेरी तकरार सही

इन सही बातों में, इक ये भी सही

इश्क़ मुझको तो है, उनको न सही

और

मुझे अपने पे ये भरोसा है सही

ना सही, उम्रभर ना सही

वक्त-ए-रुख़सत तो वो समझेंगे सही

एक उनका भी था असीर सही

बस, ये भरोसा न टूटे, निकल जाए सही

फ़िर हुआ करे इश्क़ जो आफत, तो आफ़त ही सही।।

चंद बातें हैं मेरी जां



चंद बातें हैं मेरी जां, कोई इल्ज़ाम तो नहीं

मुझसे तू हो जुदा, तुझसे मैं जुदा तो नहीं

हम नहीं एक अगरचे यही माना तुमने

तू रहे 'तू' सही, मैं तो कभी 'मैं' नहीं

क्यूं भला भूलती हो जान-ए-वफ़ा

रातभर ही रहेगी रात, उससे आगे तो नहीं

बातों-बातों में निकल जाएगी वो बात भी, जां

दरम्यां 'कुछ' है हमारे, 'बहुत कुछ' तो नहीं

फ़िर चलेंगे उन्हीं राहों पे संग मिलके हम

मुड़के इक देख ज़रा, मैं भी ठहरा तो नहीं

चंद बातें हैं मेरी जां, कोई इल्ज़ाम तो नहीं

मुझसे तू हो जुदा, तुझसे मैं जुदा तो नहीं।।

Friday, May 16, 2008

बेबाक आंखें


तेरी बेबाक आंखें
सवाल बहुत करती हैं
किसी सम्त शर्माती, थोड़ा झुकतीं
तो हालात बदल सकती हैं।

बेबाक आंखों में छिपे सवाल
गोकि तुम्हारी कशमकश
कभी 'तुम कौन' कभी सिर्फ मेरा ही ख्याल
भरोसे में ये कमी बहुत खलती है
तेरी बेबाक आंखें सवाल बहुत करती हैं।

इक भरोसा ही तो है प्यार
चाहो तो लम्हाभर में, वगर्ना सारी उम्र
परखते रहो, करते रहो इंतज़ार
इस इंतज़ार से तो दूरियां ही बढ़ती हैं
तेरी बेबाक आंखें सवाल बहुत करती हैं।

दूरियां बदल देती हैं मंज़िलें
राहें खुद-ब-खुद जुदा-जुदा
मुख्तसर सी बात भी बन जाती हैं मुश्किलें
ऐसे में, तबीयत भी कहां मिलती है
तेरी बेबाक आंखें सवाल बहुत करती हैं।

जिन सवालों के नहीं कोई मानी
उनको ज़ेहन-ओ-दिल से मिटाओ, या रब
बे-कशिश, बे-तआल्लुक सी टिकी बेबाक आंखें
उन आंखों को किसी रोज़ झुकाओ, या रब ।।

Sunday, May 11, 2008

प्यार का मौसम

प्यार का मौसम....कितनी जल्दी बदल गया

अभी तो बादल छाया था....अभी बरस कर चला गया।

मौसम सा यूं.......कैसे रिश्ता बदल गया

पलभर में बिजली चमकी...और आसमां खुल भी गया।

एक रंग ही....रात का आलम बदल गया

ज़ुल्फ़ के साए सिमट गए....स्याह अंधेरा घुल भी गया।

आईना हूं मैं....हम-दोनों के रिश्तों का

इक तस्वीर छपी रहती थी...वो इश्तेहार अब उतर गया।

काश यूं होता......कितनी बार यही सोचा

मैने छोड़ दिया ग़ुस्सा....तो दिलबर मेरा रूठ गया।।

Friday, April 25, 2008

वफ़ा का सबक़


(बेताल के संगी-साथियों, लंबे अरसे बाद यहां कुछ ला पाया हूं...कुछ अपनी बातें तो कुछ औरों की....कई बार उन लोगों के नाम मुझे याद नहीं रहते....इसलिए माफ़ करें....मुझे इस बात का अफ़सोस रहेगा....लेकिन दोस्तो, उन्होंने जो अच्छी बात कही उसे मैं ज्याद से ज्यादा लोगों के साथ शेयर करना चाहता हूं...और अपनी बातों से कम अहमियत उन्हें नहीं देता....शुरुआत भी मैं एक कवियित्री की रचना से ही कर रहा हूं..उनका नाम मुझे याद नहीं...)

वो भूलते हों तो भूल जाएं
वफ़ा का सबक़
हमारी तो याददाश्त अच्छी है।
हमक़दम बन के वो रास्ता बदल लें
सफ़र में तो क्या ?
अपनी तो फ़ितरत सच्ची है।
वो रखते हों भोर में नाप-तौल कर क़दम
हमें तो अंधेरों की भी छलांग लगती अच्छी है।
वो खाते हों आम पक जाने के बाद
हमें तो कच्ची अमिया भी लगती अच्छी है।
प्यार में यूं नफ़ा-नुक़सान क्या सोचना ?
ये सीधी सड़क तो नहीं !
कूद जाओ झाड़ियों में तो एक दिन
बनती पगडंडी पक्की भी है।।

शेक्सपियर की प्रेमिका !

प्यार और प्रेमिका के लिए मशहूर नाटककार शेक्सपियर की ताल (शायद ख्वाब में जीने वाले आज के युवाओं का बुख़ार सही तरह से डायग्नोज़ हो पाए)
'' मेरी प्रेमिका की आंखें सूरज जैसी नहीं हैं...मूंगा भी उसके होठों से ज्यादा रंगीन है....बर्फ भी उससे ज्यादा श्वेत है और काले बादलों का रंग भी उसके बालों से ज्यादा गहरा है....गुलाब भी उसके गालों से ज्यादा कोमल है...लेकिन फिरभी उसकी सांसों की महक मुझे इन सबसे अच्छी लगती है। मैं उसके चेहरे को पढ़ सकता हूं...मुझे उसमें नज़र आता है मेरे लिए समर्पण और वह प्रेम रस जिसके लिए मैं बरसों से प्यासा था। मुझे उसकी आवाज़ में संगीत की मिठास लगती है। मैने कभी ईश्वर को नहीं देखा, लेकिन मैं अपनी प्रेयसी में उसके दर्शन कर पाता हूं। जब वो ज़मीन पर पैर रखती है..ऐसा लगता है मानो स्वर्ग से उतर रही हो। हो सकता है यह सब मेरी कल्पना हो, लेकिन मैं उससे प्रेम करता हूं यह सच्चाई है।। ''

मैं और मेरा साया


मिरे साथ रहता था साया हमेशा

मगर इन दिनों हम अलग हो गए हैं

उसे ये शिकायत थी मुझसे

कि उसे मिटाने की ख़ातिर ही मैं यूं

अंधेरों में चलता हूं

ताकि वो मेरा तआकुब न कर पाए, लेकिन

मुझे ये शिकायत थी, मैं रौशनी में

अकेला भी चल सकता था

अंधेरे के जिस वक्त

मुझको ज़रूरत थी अहबाब की

वो ग़ायब था

उसका निशां तक नहीं था

मिरे साथ रहता था साया मिरा

शरीक-ए-हयात और साथी मिरा

मगर इन दिनों हम अलग हो गए हैं।।

मुझे पुकार लो


कविवर हरिवंश राय बच्चन की एक अमर रचना---

इसलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !

ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता

जहान देखकर मुझे नहीं ज़बान खोलता

नहीं जगह कहीं जहां न अजनबी गिना गया

कहां-कहां न फिर चुका दिमाग़ दिल टटोटलता

कहां मनुष्य है कि जो उम्मीद छोड़कर जिया

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !

तिमिर-समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी

विनिष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी

न कूल भूमि का मिला, न कोर भोर की मिली

न कट सकी न घट सकी, विरह भरी विभावरी

कहां मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे दुलार लो !

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !

उजाड़ से लगा चुका उम्मीद मैं बहार की

निदाघ से उम्मीद की बसंत के बयार की

मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी

अंगार से लगा चुका उम्मीद मैं तुषार की

कहां मनुष्य है जिसे न भूल शूल सी गड़ी

इसीलिए खड़ा रहा कि भूल को सुधार लो !

इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो !

पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो !

अपना-अपना रास्ता


भले समय की बात है

भली सी एक शक्ल थी

न ये कि ख़ासो ख़ास हो

न देखने में आम सी

न ये कि वो चले तो

कहकशां सी रहगुज़र लगे

मगर वो साथ हो तो फिर

भला भला सफ़र लगे

न आशिक़ी जुनून की

कि ज़िंदगी अज़ाब हो

न इस क़दर सुपुर्दगी

कि बदमज़ा हों ख्वाहिशें

न इस क़दर कठोरपा

कि दोस्ती ख़राब हो

न ऐसी बेतकल्लुफ़ी

कि आइना हया करे

कभी तो बात की ख़फी

कभी सुखोद की सुख़न

कभी तो कश्त-ए-ज़ाफरां

कभी उदासियों का बन।

सुना है एक उम्र है

मुआमलाते दिल की भी

विसाल-ए-जां फ़िदा तो क्या

किस्सा-ए-जां गुसल की भी।

तो एक रोज़ क्या हुआ

वफ़ा पे बहस छिड़ गई

मैं इश्क़ को अमर कहूं

वो मेरी ज़िद से चिढ़ गई

मैं इश्क़ का असीर था

वो इश्क़ को क़फ़स कहे

शज़र हुज़ूर नहीं कि हम

हमेशा पाक सिल रहें

न ठौर हैं कि रस्सियां

गले में मुस्लसिल रहें

मोहब्बतों की ग़ुस्सतें

हमारे दस्त-ए-ख्वां में हैं

बस एक दर से निस्बतें

शज़ान-ए-बा-वफ़ा में हैं

मैं पेंटिंग नहीं कि

एक फ्रेम में रहूं

जो मन का मीत है

उसी के प्रेम में रहूं

तुम्हारी सोच जो भी हो

मैं ऐसी सोच की नहीं

मुझे वफ़ा से बैर है

ये बात आज की नहीं।

न उसको मुझ पे नाज़ था

न मुझको उससे ज़ोम ही

जो एक ही कोई न हो

तो क्या ग़म-ए-शिक़स्तगी

तो अपना-अपना रास्ता

हंसी-खुशी बदल लिया

वो अपनी राह चल दिया

मैं अपनी राह चल दिया।

भली सी उसकी शक्ल थी

भली सी उसकी दोस्ती

अब उसकी याद रात-दिन

नहीं, मगर कभी-कभी।।

कैसे-कैसे यार

चंद सतरें जो किसकी हैं याद नहीं...लेकिन जो है वो हमेशा याद रखने वाली हैं

तुम भी निकले कच्चे यार

तुमसे अच्छे बच्चे यार

किया भरोसा तुम पर मैने

खाते फिरते गच्चे यार।

मान गए तुम कितनी जल्दी

मेरी पहरेदारी को

जाने किसने आग लगाई

हम न इतने लुच्चे यार।

हमने क्या-क्या जतन किए

अपनी साख़ बचाने को

पर तुमने इल्ज़ाम लगाए

हरदम खाए गच्चे यार।

फिर टूटा विश्वास हमारा

फंसकर दुनियादारी में

किसको दिल का ज़ख्म दिखाएं

मिलते हैं कब सच्चे यार।

जब भी सोचूं गुज़री बातें

अपना जी भर आता है

बगुल पंख से धवल सुनहरे

दिन थे कितने अच्छे यार।।

किलकारी


ये एक आवाज़ भर नहीं है

किसी का रोना-धोना नहीं है

बेहद पाक और नवेली

ये आवाज़ है

मेरे बच्चे की किलकारी

जिससे गूंजे है दिग-दिगंत, मेरा संसार।

कानों से होता हुआ,

मेरे जीवन में रस घोलता इसका सुर

है आज मेरा संबल, कल के जीवन का आधार।

कोई भी मत रोकना इस लय को

मत कराना कभी इसे चुप।।

मां


आज जो तुम महसूस कर रही हो अपने भीतर

एक स्पंदन।

अपनी नस-नस में दौड़ता आवेग

शायद समझ पाओ अपने पूर्णत्व को।

तुम्हारा नाम बदलेगा

जो तुम्हे देगा धरती के समान दर्ज़ा

धरती, जो संजोए है अपने भीतर अमूल्य रत्न।

तुम भी तो रत्नगर्भा हो, सबसे बड़ी।

हर पल तुम्हारी सांसों में जी रहा है एक नया जीवन

तुम उसकी जननी बनोगी,

लेकिन उसका ऋण भी तुम पर कम नहीं होगा

तुम्हारे जीवन के अंतिम सच को वही सामने लाएगा

तुम्हें पुकारेगा-मां।

मां, तुम्हारा परम वैभव, तुम्हारा विराट अस्तित्व

लेकिन वह मेरे ऊपर भी करेगा उपकार

मेरे भीतर की अस्थिरता और मन में लाएगा चिरशांति।

अब तुम होगी मां, सिर्फ मां

बेटी, प्रेयसी या पत्नी नहीं।।

परिवर्तन


जब बदलेंगे मूल्य

बदलेंगे कुछ इस तरह

कि आज के बदले हुए मूल्यों में भी दिखेगा बदलाव

वापस किसी दकियानूसी समाज में नहीं

एक नए और बेहतर समाज में जाकर रुकेगा ये परिवर्तन चक्र।

यह क्षणिक ठहराव ही दिखा देगा उस समाज का अक्स

जहां होगी

नए ज़माने की सच्चाई, निश्छलता, दृढ़ता

और होगा कल का उत्साह, विस्तार व प्यार

ऐसा नया ज़माना जिसमें होगी छाप

हर काल की सच्चाइयों की, अच्छाइयों की।

क्योंकि, सच में

इस बीच की पीढ़ी ने मूल्य बदले नहीं बिगाड़े हैं।

परिवर्तन तो सृष्टि का नियम है

फिर वो कैसे हो सकता है विध्वंसात्मक

नहीं ! विकृति ही है नकारात्मक

तो हे विकृति के नायक, बीच की पीढ़ी के लोग, आज के काल

तुम जो बिगड़े बैठे हो

लाओ थोड़ा सा बदलाव

देखो बदलकर अपनी विकृत चाल

और देखो,

देखो कि सब-कुछ

सब-कुछ कितना सीधा है, सादा है, प्यारा है।।

आसमान से टूटा तारा


किस क़ीमत पर क्या खुशियां पाई हैं तुमने, तुम जानो

हम तो इक मासूम कली की मौत का मातम करते हैं।

दीप बुझा कर साल किया रौशन कैसे ये तुम जानो

हम तो 365 दिन की बिखरी रातें गिनते हैं।

छोड़ के दो पग, साथ जुड़े कितने क़दमों से, तुम जानो

हम तो बिछड़े क़दमों की बस दूर से आहट सुनते हैं।

चमकीली दुनिया के पीछे, कहां चलीं तुम, तुम जानो

हम तो सीधी-सादी दुनिया के, टूटे सपने बुनते हैं।

खुद तुमने तय की जो मंज़िल, कहां है अब वो तुम जानो

हम तो हर दिन तुम दोनों के, बीच की दूरी तकते हैं।।

कैसा प्यार !

धूमिल जी ने आज के युवा प्यार को लेकर कभी दो लाइनें कहीं थीं---
'' चुटकुलों से घूमती लड़कियों के स्तन नकली हैं

और नकली हैं युवकों के दांत। ''

इस अमूल्य ज्ञान के सहारे बेताल की लय कुछ यूं कहती है-



कैसा प्यार !

ढाई अक्षर का सिमटा हुआ शब्दभर

अपने पहले अक्षर सा अधूरा

पूर्णता की चाह में एकाकी, जीवनभर।

कैसा प्यार !

नज़रों के नज़रें मिले रहने तक

क़ायम है बस जिसका संसार।

कैसा प्यार !

दिल में हज़ार तहें लिए

सोना एकसाथ बिस्तर पर।

कैसा प्यार !

रूप और यौवन की बगिया में

लगाना मेंहदी की चाहरदीवार।

कैसा प्यार !

मोड़ आने से पहले तक

हमक़दम बनकर चलना, बेज़ार।

कैसा प्यार !

दीप के बुझने तक कर पाना

रंगीन सितारों का इंतज़ार।

कैसा प्यार !

बार-बार कहने की ज़रूरत है क्या

और चुप हो जाना, हर बार।।

Sunday, April 6, 2008

समझ गए ना

इस ब्लॉग को ज़रा बेहतर ढंग से समझने के लिए कुछ बानगी---

1.
किया था फ़ैसला के घर से भाग कर शादी रचाएंगे

मगर जब वक्त आया तो, वो निकले न हम निकले।।

2.
मियां, इश्क करके भी देखा

मगर इसमें खर्चे बहुत हैं।।

3.
इश्क़ ने ग़ालिब तिकोना कर दिया

वरना हम भी आदमी चौकोर थे।।
4.
कौन कहता है कि माशूका मेरी गंजी है

'चांद' के सिर पे कहीं बाल उगा करते हैं।।


...शेष फ़िर।