Friday, June 13, 2008

एक तस्वीर



सारे रंग जोड़कर उसकी इक तस्वीर बनाई

शायद फिरभी कोई कमी थी, उसको रास न आई

क़तरा-क़तरा धूप जुटाकर रंग भरा चेहरे में

उसने फेर लिया चेहरा और शाम घनी घिर आई

अप्सराओं का रूप चुराकर उस पर लुटा दिया

उसने नज़र टिका दी मुझपे और ली इक अंगड़ाई

जाने कितनी कलियों का रस लेकर होठ गढ़े

फिक़रे लिए हज़ार वो बस हौले से मुस्काई

क़ायनात ठुकरा कर मेरी वो इठला कर चल दी

क्या गु़रूर था उसमें, मुझसे जाने कौन लड़ाई

अब इन ख़ाक़ों में कैसे में किसके रंग भरूं

निहां हुआ महबूब मेरा और मीलो है तन्हाई ।

2 comments:

समयचक्र said...

Bahut badhiya badhai.

SWETA TRIPATHI said...

सारे रंग हमे नजर नहीं आते कभी रंग तो सुनहरे होते है लेकिन चमक नहीं होती. जैसे हर चमकती चींच सोना नहीं होती वैसे ही रंग जीवन की पहचान नही होता.आप अपनी जगह ठीक हो रंगो को चुनने में माहिर हो जानते हो कैसे भरे इसे जीवन के खाली कैनवास में...चीजों को पहचानते हो उन्हो मोड़ देना भी जानते हो.आप अपनी जगह हमेशा ठीक हो कभी कोई गलत फैसला नहीं कर सकते.