Saturday, June 7, 2008

क्यों उलझते हैं हम भी ऐयारों से



सफ़ीने क्यों उलझते हैं किनारों से

क्यों उलझते हैं हम भी ऐयारों से

कल मिला था मुझे रहजन, मगर छोड़ दिया

आज मोहसिन ने ही ज़ख्मी किया तलवारों से

धूप हल्की थी, हवा भी पुरनम

बिछड़ी मंज़िल यूं, कि पूछा था मददगारों से

लाख चाहा न खिल सका ये दिल

हो तो हो महफ़िल जवां दिलदारों से

डूबना ही था सफ़ीना, खुशी जो उनकी थी

क्या भला पार लगाता उसे पतवारों से ।

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