Tuesday, July 29, 2008

ना तो अच्छा, ना तो सादा



मैं न अच्छा, मैं न सीधा

मैं न सुंदर, मैं न सादा

दुनिया ने है देखा मुझे

परतों में ही बस आधा

बातें हैं बेयक़ीनी

लहज़ा, हां, शरीफ़ाना

ताल्लुक़ है वहीं तक बस...

न तो थोड़ा, ना तो ज्यादा

तितली सा फरेबी

चटकीला, है मन काला

निभना भी है मुश्किल

न तो मीरा, ना तो राधा

मिन्नत हैं बेअसीरी

कोई मुझको न समझाना

मुझे याद नहीं अब कुछ

ना तो रिश्ता, ना तो वादा

जीने की अदा सीखी

दुनिया ! तुझी से जाना

ज़िंदा है वही बस जो

ना तो अच्छा, ना तो सादा ।।

Sunday, July 13, 2008

इनसे मिलिए



मैने कभी नहीं सुना-तुम बहुत अच्छे हो

बस देखा उसकी झिलमिलाती आंखों में बसे समर्पण को

और अपने प्रति इस समर्पण को ही मान लिया

कि हां, उसकी नज़रों को मैं भाता हूं

मैने कभी नहीं सुना-तुमसे दूर नहीं रह सकती

बस देखा हर रोज़ दरवाज़े पर उसे इंतज़ार करते

उसकी सूनी आंखों का इंतज़ार...

जो मुझे आते देखकर थोड़ा सा झुक जाती थी


उसकी इस अदा को मैंने समझा शरमाना

और मान बैठा, उसका इंतज़ार मेरे वास्ते ही था

आज अचानक वो मिली मुझसे एक नए अंदाज़ में

पूरी सज-धज के साथ

उसकी आंखें जो हमेशा मुझसे बात करती थीं

आज बहुत बेबाकी से टिकी थीं मुझ पे

मानों दे रही हों उलाहना-तुमने बहुत देर कर दी

या कि तुम कमज़ोर थे

तुम जो भी हो

अब ना ही मेरे लिए अच्छे हो

ना ही अब मुझे तुम्हारा इंतज़ार है

और

वो बेबाक़ नज़रे घूमीं पूरी शोखी के साथ

वो नज़रे मुझसे करा रहीं थीं तार्रुफ़

इनसे मिलिए

ये हैं मिस्टर....।।

Monday, July 7, 2008

कारवां गुज़र गया


बेताल के संगी-साथियों के लिए महान कवि गोपालदास 'नीरज' की एक अमर रचना....

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से

लुट गए श्रृंगार सभी बाग़ के, बबूल से

और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे ।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई

पांव जब तलक उठे कि ज़िंदगी निकल गई

पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई

चाह तो निकल सकी ना पर उमर निकल गई

गीत अश्रु बन गए, शब्द हो हवन गए

रात के सभी दिए धुआं-धुआं पहन गए

और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके

उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा

क्या स्वरूप था कि देख आइना सिहर उठा

इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा

थामकर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा

एक दिन मगर छली वो हवा यहां चली

लुट गई कली-कली कि घुट गई कली-कली

और हम दबी नज़र, देह की दुकान पर

सांस की शराब का ख़ुमार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

आंख थी मिली कि अश्रु-अश्रु बीन लूं

होठ थे खुले कि चूम हर नज़र हसीन लूं

दर्द था दिया गया कि प्यार से यक़ीन लूं

और गीत यूं की रात से चराग़ छीन लूं

हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर

वह उठी लहर की ढह गए किले बिखर-बिखर

और हम लुटे-लुटे, वक्त से पिटे-पिटे

दाम गांठ के गवां, बाज़ार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

मांग भर चली थी एक जब नई-नई किरण

ढोलकें धुनक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण

शोर मच गया कि लो चली दुल्हन-चली दुल्हन

गांव सब उमड़ पड़ा, बह उठे नयन-नयन

पर तभी ज़हर भी, गाज़ एक वह गिरी

पुंछ गया सिंदूर, तार-तार हुई चूनरी

और हम अजान से, दूर के मकान से

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया...

एक रोज़ एक गेह, चांद जब नया जगा

नौबतें बजीं, हुई छठी, डठौन रतजगा

कुंडली बनी कि जब मुहूर्त पुण्यमय लगा

इसलिए कि दे सके न मृत्यु जन्म को दग़ा

एक दिन पर हुआ, उड़ गया पला सुआ

कुछ न कर सके शगुन, ना काम आ सकी दुआ

और हम डरे-डरे, पीर नयन में भरे

ओढ़कर कफ़न पड़े, मज़ार देखते रहे

चाह थी न किंतु बार-बार देखते रहे

कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे ।।

Friday, July 4, 2008

आए न कोई आंच...



दोस्ती की बात छिड़ी जब भी कहीं पर

मैं आ के रुका हूं सदा, ऐ दोस्त तुझी पर

दिल तो किसी को दे चुके हैं पहले से ही हम

अब करते हैं इज़रा-ए-वफ़ा, तेरे ही दम पर

दोस्ती को पाक़ सदा समझेगा भला कौन

है सारे जहां की नज़र, बस तुम पे और हम पर

हाथों को है हर वक्त मेरे रोका तुम्ही ने

जब-जब भी ये पहुंचे हैं किसी, भरते ज़ख़्म पर

मैं मांगता हूं ये दुआ परवरदिगार से

आए न कोई आंच मेरे निगहबान पर ।