इसी डर से मैं बुतख़ाने न पहुंचा
कि पत्थर दिल न हो जाए पत्थर
जहां बसते हैं नानक, सिर नवाया
है रिसता फ़िरभी खूं यूं, लगी फ़िर आज ठोकर ।
था मेरे संग वो संगदिल
मगर मुझसे कटा था
झुका तो साथ में सिर
उठा तो वो उठा था
बड़ी हसरत थी उसकी, मिटी है चूर होकर ।
क़दम हमराह थे तब
ज़ुबां भी बेयक़ीनी बा-अदब
उड़ चली पाक़ीज़ा ख़ुश्बू
घटा बाहर घिरी जब
कहें किस से भला क्या, गिरी है बिजली मुझ पर
इसी डर से मैं बुतख़ाने न पहुंचा
कि पत्थर दिल न हो जाए पत्थर ।।
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