Tuesday, June 3, 2008

कि पत्थर दिल न हो जाए पत्थर


इसी डर से मैं बुतख़ाने न पहुंचा

कि पत्थर दिल न हो जाए पत्थर

जहां बसते हैं नानक, सिर नवाया

है रिसता फ़िरभी खूं यूं, लगी फ़िर आज ठोकर ।

था मेरे संग वो संगदिल

मगर मुझसे कटा था

झुका तो साथ में सिर

उठा तो वो उठा था

बड़ी हसरत थी उसकी, मिटी है चूर होकर ।

क़दम हमराह थे तब

ज़ुबां भी बेयक़ीनी बा-अदब

उड़ चली पाक़ीज़ा ख़ुश्बू

घटा बाहर घिरी जब

कहें किस से भला क्या, गिरी है बिजली मुझ पर


इसी डर से मैं बुतख़ाने न पहुंचा

कि पत्थर दिल न हो जाए पत्थर ।।

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