Saturday, May 31, 2008

'पी' से गोरी रूठी जब से...



रात गुज़रती करवट-करवट

दिन कटता है आहट-आहट

'पी' से गोरी रूठी जब से

बियावान है पनघट-पनघट ।

सूरज की किरणें चुपके से

छूकर मुझे जगाती थीं

हवा गुनगुना के कानों में

उसके गीत सुनाती थी

आसमान में घिरी घटाएं

मिलन की हूक उठाती थी

शाम ढले जब दीप जले

पनघट पे गोरी आती थी

चांद फ़लक पर तभी निकलता

जब वो पहलू में छिप जाती थी ।

लेकिन जब से गोरी रूठी

क़ायनात भी रूठी-रूठी ।

चांद चिढ़ाता है अब मुझको

शाम दुखाती हरपल दिल को ।

आसमान में घिरी घटाएं

आंसू बनकर आती हैं

हवा ठिठक कर थमी हुई है

किरणें आग लगाती हैं ।

आंख खुले तो जग लगता है

मानो जैसे मरघट-मरघट

पी से गोरी रूठी जब से

बियावान है पनघट-पनघट ।

2 comments:

Sanjay Bisht said...

ये पढ कर तो मुझे अपने पी की याद आ गयी....बहुत सही...

विकास बहुगुणा said...

अगड़म बगड़म झूठी सच्ची
कविता लिखी सच में अच्छी