फ़िसलन भरे उस मोड़ से, निकल आया मैं
रिश्ते टूटे, हाथ छूटे
फ़िरभी, खुद तक आया मैं
सिर उठा के, सांस भर के, मुस्काया मैं
मैं नहीं डरता
ज़ख्म सी सकता हूं अपने
खुद संभल सकता हूं मैं,
मैं नहीं डरता
फ़ैसला कोई करे, मंज़िलें तय कोई करे
उस पे चल सकता हूं मैं,
मैं नहीं डरता
ज़र्द मौसम और सफ़र तन्हा
हूं अकेला ही मगन मैं,
मैं नहीं डरता
इस सफ़र में, फ़िर अचानक यूं हुआ
राह में, बेसाख्ता कोई मिला
दिल में झांका, ज़ख्म कुछ ऐसे छुआ
पहली दफ़ा, तन्हाई का आलम जगा
जाने क्यूं दिल, ज़रा तलबग़ार हुआ
ज़ख्म कुछ और खुले, दिल भी कुछ और खुला
इतना कि हमसफ़र मेरा भी, अज़ार हुआ
एक लम्हा भी न गुज़रा और वो जुदा हुआ
वो गया क्या...
अब तो खुद से भी जुदा हूं मैं
कितना बेबस और तन्हा सा हूं मैं
अब, मुझे डर लगता है ।।
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