Wednesday, May 28, 2008

अब तक यही धोखा है




एहसास की रुसवाई का

इक ये भी तरीका है

महफ़िल में है पूछा ग़म-ए-दिल

क्या ख़ूब सलीका है ।

मैने भी ये सोचा है

ना लूंगा तेरा नाम

साहेब न बुरा मानिए

सब आपसे सीखा है ।

गर्दन न झुकी थी कभी

सजदे में किसी के

क्यूं यां झुकी, न पूछिए

ये उसका दरीचा है ।

गुज़रे थे किसी रोज़

गर्दन किए टेढ़ी सी

मैं समझा हया मुझसे

अब तक यही धोखा है ।।

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