एहसास की रुसवाई का
इक ये भी तरीका है
महफ़िल में है पूछा ग़म-ए-दिल
क्या ख़ूब सलीका है ।
मैने भी ये सोचा है
ना लूंगा तेरा नाम
साहेब न बुरा मानिए
सब आपसे सीखा है ।
गर्दन न झुकी थी कभी
सजदे में किसी के
क्यूं यां झुकी, न पूछिए
ये उसका दरीचा है ।
गुज़रे थे किसी रोज़
गर्दन किए टेढ़ी सी
मैं समझा हया मुझसे
अब तक यही धोखा है ।।
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