Tuesday, May 20, 2008

'जन्नत' की हक़ीक़त



जन्नत की एक हक़ीक़त ग़ालिब साहब ने देखी थी. एक 'जन्नत' मैने भी देखी है. हालांकि दोनों बिल्कुल जुदा हैं लेकिन अहसास बिल्कुल एक सा है. ग़ालिब साहब की तो मैं पैरों की धूल भी नहीं इसीलिए जो बात वो फ़क़त दो लाइनों में कह गए, अपनी बात (वही बात नहीं, क्योंकि वो तो कोई दूसरा कह ही नहीं सकता) कहने के लिए मुझे इतना कुछ लिखना पड़ रहा है. लेकिन अपने दोस्तों के लिए कुछ फ़र्ज़ तो हमारा भी बनता ही है...

इक लड़की हसीन

एक लड़का जवान

और

दोनों की चाहत परवान

कितना ख़ूबसूरत उनमान !

अब दोनों हैं साथ

हाथों में हाथ

और

सच होती ख्वाब-ओ-ख्यालों की रात

फ़िरभी कितना परेशान !

खुशियां लड़की को प्यारी

लड़की, लड़के को प्यारी

और

हर तरफ फैली उधारी

अब ये नया मेहमान !

राह उसकी थी स्याह

साथ छूटा सभी का

और

जो होना था उससे पड़ा साबका

किसको नहीं था गुमान !

इक था लड़का जवां

इक थी लड़की हसीं

इक ने छोड़ा जहां

इक का उजड़ा जहां

'जन्नत' की है बस यही दास्तां

दोस्तो, अब न हो परेशां।।

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