Saturday, May 31, 2008

'पी' से गोरी रूठी जब से...



रात गुज़रती करवट-करवट

दिन कटता है आहट-आहट

'पी' से गोरी रूठी जब से

बियावान है पनघट-पनघट ।

सूरज की किरणें चुपके से

छूकर मुझे जगाती थीं

हवा गुनगुना के कानों में

उसके गीत सुनाती थी

आसमान में घिरी घटाएं

मिलन की हूक उठाती थी

शाम ढले जब दीप जले

पनघट पे गोरी आती थी

चांद फ़लक पर तभी निकलता

जब वो पहलू में छिप जाती थी ।

लेकिन जब से गोरी रूठी

क़ायनात भी रूठी-रूठी ।

चांद चिढ़ाता है अब मुझको

शाम दुखाती हरपल दिल को ।

आसमान में घिरी घटाएं

आंसू बनकर आती हैं

हवा ठिठक कर थमी हुई है

किरणें आग लगाती हैं ।

आंख खुले तो जग लगता है

मानो जैसे मरघट-मरघट

पी से गोरी रूठी जब से

बियावान है पनघट-पनघट ।

Friday, May 30, 2008

नेमत



बदलते हुए

मैंने सिर्फ वक्त ही नहीं

लोगों को भी देखा है

बदलते हुए

मैने सिर्फ औरों को नहीं

अपनों को भी देखा है

वो अपने जो आज भी मेरे हैं

शायद मैं ही उनका नहीं रहा

लेकिन इस बात का शिकवा क्यूं

क्योंकि ये भी अहसान है उनका

बदलें हैं अपने

तो बदले हैं ग़ैर भी

और जो साथ अपने ले गए

हिमालय से भी ऊंचे शिखरों पर

तलहटियों में जीने की कूवत

और लड़ने का हुनर भी

नेमत है उन्हीं की ।।

चले थे साथ तुम और हम



कश-आं-कश में अजब सी आज, पड़ा रिश्तों में पेच-ओ ख़म

वहां ग़र दोस्त हैं तो भी, यहां दुश्मन नहीं हैं हम

वगरना चंद लम्हो में, सुलझ जाता ये किस्सा यूं

रहेंगे दोस्त के बनकर, बला से तुम कहो बरहम

मगर शिकवों से क्या हासिल, करें क्यूंकर शिकायत भी

नया तूने किया है क्या, जो रोएं नए सिरे से हम

अगरचे पूछ बैठा कोई, मुझसे डूबने का राज़

तो फ़िर ऐ छोड़ने वाले ज़रा कहियो, कहें क्या हम

तुम्हारा 'आज' हां सच है, मगर तारीख़ पीछे है

क़दम दो ही चले पर, चले थे साथ तुम और हम

Thursday, May 29, 2008

कर लेना मुझको याद...



यकलख़ जो आ गई है मेरी याद शब्बा ख़ैर


कर लेना मुझको याद यूं ही तुम ब-वक्त-ए-सैर

मैं क्यूं कहूं कि कैसे रहूंगा तेरे बग़ैर

जा रहिए वां खुशी से मनाउंगा रब से ख़ैर

देवों के इंद्र के भी हैं छूटे सगे-औ-दैर

यां मैं पड़ा हूं तन्हा नहीं किस्सा ये कोई ग़ैर

क्यूं कर न सह पाऊं तेरा रस्म-ओ-राह-ए-ग़ैर

बेशक़, करो मुआफ़ हूं तंगी-ए-दिल पे ज़ेर

डूबा मैं गोकि खींचा था उसने, न फ़िसले पैर

दिल को है फ़िरभी दोस्त, अक्ल से अजब सा बैर।।

Wednesday, May 28, 2008

रवायत




भरी महफ़िल में हाल-ए-दिल जो पूछा आपने हमसे

बजा तरह से कर दी पेश साहेब दोस्ती हमसे

कि देखा और झट से पूछ बैठे-हाल कैसा है

न कोई दिलनवाज़ी की न कोई बंदिगी हमसे

समझ में आ गई हमको रवायत ये नई उनकी

अदूं को जा संभाले फ़िर जो वो छूटें ज़रा हमसे

कहें क्या आपकी तर्ज़-ए-तपाकी पर भला अब हम

कशिश कुछ आज कमतर है, अदावत न सही हमसे

यहां ये आ पड़ी मुश्किल कि रोकें किस तरह उनको

उधर वो मुस्कुरा कर दूर होते जा रहे हमसे।।

अब तक यही धोखा है




एहसास की रुसवाई का

इक ये भी तरीका है

महफ़िल में है पूछा ग़म-ए-दिल

क्या ख़ूब सलीका है ।

मैने भी ये सोचा है

ना लूंगा तेरा नाम

साहेब न बुरा मानिए

सब आपसे सीखा है ।

गर्दन न झुकी थी कभी

सजदे में किसी के

क्यूं यां झुकी, न पूछिए

ये उसका दरीचा है ।

गुज़रे थे किसी रोज़

गर्दन किए टेढ़ी सी

मैं समझा हया मुझसे

अब तक यही धोखा है ।।

Sunday, May 25, 2008

मुझे डर लगता है




फ़िसलन भरे उस मोड़ से, निकल आया मैं

रिश्ते टूटे, हाथ छूटे

फ़िरभी, खुद तक आया मैं

सिर उठा के, सांस भर के, मुस्काया मैं

मैं नहीं डरता

ज़ख्म सी सकता हूं अपने

खुद संभल सकता हूं मैं,

मैं नहीं डरता

फ़ैसला कोई करे, मंज़िलें तय कोई करे

उस पे चल सकता हूं मैं,

मैं नहीं डरता

ज़र्द मौसम और सफ़र तन्हा

हूं अकेला ही मगन मैं,

मैं नहीं डरता

इस सफ़र में, फ़िर अचानक यूं हुआ

राह में, बेसाख्ता कोई मिला

दिल में झांका, ज़ख्म कुछ ऐसे छुआ

पहली दफ़ा, तन्हाई का आलम जगा

जाने क्यूं दिल, ज़रा तलबग़ार हुआ

ज़ख्म कुछ और खुले, दिल भी कुछ और खुला

इतना कि हमसफ़र मेरा भी, अज़ार हुआ

एक लम्हा भी न गुज़रा और वो जुदा हुआ

वो गया क्या...

अब तो खुद से भी जुदा हूं मैं

कितना बेबस और तन्हा सा हूं मैं

अब, मुझे डर लगता है ।।

Friday, May 23, 2008

दो पल



आओ याद कर लें बीते पल, आख़िरी बार


बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा

पढ़ लें एक-दूजे के नयनों को, आख़िरी बार

बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा।

तुझे याद है वो शाम

मेरी एक झलक को, गुज़री थीं मेरे सामने से

मुझे आज भी याद है वो सुबह

एक बहाना लेकर आया था मैं मिलने को तुझसे

याद कर लें वो शामें, वो सुबहें, आख़िरी बार

बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा ।

दिनभर की थकन के बाद मेरे लिए तुम्हारा वो जतन

एक-एक चीज़ मेरी पसंद की तुमने बनाई थी प्यार से

फ़िरभी ठिठका था ना आने को, थोड़ा सा मेरा मन

क्या आज की हक़ीक़त से...या होने वाले प्यार के अहसास से

सोच लें सब गत-आगत, आख़िरी बार

बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा ।

तुम्हारी पायलों की रुनझुन से बढ़ती धड़कने

और उन्हें अपने ही मरमरी हाथों से थामना

सारी खुशियां लेकर आई थीं तुम मेरे सिरहाने

एक बुझती हुई लौ को दी थी रौशनी अपने चेहरे सेदेख लें वो रौशनी, आख़िरी बार

बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा ।

मेरे ख्वाबों को अपनी आंखों में सजाकर

एक अहद के साथ दूर हुई थीं तुम मुझसे

उन ख्वाबों के हक़ीक़त में बदलने का इंतज़ार

थाम के सांस कर रहा हूं कब से

सुन लो इन रुकी हुई धड़कनों को आख़िरी बार

बैठकर बस पल दो पल, फ़िर हो जाना जुदा ।

अब न दिल है, न धड़कन, न कोई इंतज़ार

बीती यादें, मायूस जिस्म और मेरी हार

कट गए दो पल भी, हो गए जुदा सरकार

ता उम्र का रोना मेरा हिस्से आया है हर बार ।

Tuesday, May 20, 2008

'जन्नत' की हक़ीक़त



जन्नत की एक हक़ीक़त ग़ालिब साहब ने देखी थी. एक 'जन्नत' मैने भी देखी है. हालांकि दोनों बिल्कुल जुदा हैं लेकिन अहसास बिल्कुल एक सा है. ग़ालिब साहब की तो मैं पैरों की धूल भी नहीं इसीलिए जो बात वो फ़क़त दो लाइनों में कह गए, अपनी बात (वही बात नहीं, क्योंकि वो तो कोई दूसरा कह ही नहीं सकता) कहने के लिए मुझे इतना कुछ लिखना पड़ रहा है. लेकिन अपने दोस्तों के लिए कुछ फ़र्ज़ तो हमारा भी बनता ही है...

इक लड़की हसीन

एक लड़का जवान

और

दोनों की चाहत परवान

कितना ख़ूबसूरत उनमान !

अब दोनों हैं साथ

हाथों में हाथ

और

सच होती ख्वाब-ओ-ख्यालों की रात

फ़िरभी कितना परेशान !

खुशियां लड़की को प्यारी

लड़की, लड़के को प्यारी

और

हर तरफ फैली उधारी

अब ये नया मेहमान !

राह उसकी थी स्याह

साथ छूटा सभी का

और

जो होना था उससे पड़ा साबका

किसको नहीं था गुमान !

इक था लड़का जवां

इक थी लड़की हसीं

इक ने छोड़ा जहां

इक का उजड़ा जहां

'जन्नत' की है बस यही दास्तां

दोस्तो, अब न हो परेशां।।

Sunday, May 18, 2008

इश्क़ आफ़त है तो...


इश्क़ आफ़त है तो आफ़त ही सही

दिल नहीं उनकी दिल्लगी थी, सही

नज़रें शर्माईं, लजाईं न सही

वो हंसी, माना फुसूंकार सही

हाथ में हाथ का वादा न सही

हमक़दम बनने का भी कोई इरादा न सही

बातें उनकी थीं छलावा ही सही

तल्ख़ अंदाज़ उनकी आदत ही सही

हर इक बात पे उनसे मेरी तकरार सही

इन सही बातों में, इक ये भी सही

इश्क़ मुझको तो है, उनको न सही

और

मुझे अपने पे ये भरोसा है सही

ना सही, उम्रभर ना सही

वक्त-ए-रुख़सत तो वो समझेंगे सही

एक उनका भी था असीर सही

बस, ये भरोसा न टूटे, निकल जाए सही

फ़िर हुआ करे इश्क़ जो आफत, तो आफ़त ही सही।।

चंद बातें हैं मेरी जां



चंद बातें हैं मेरी जां, कोई इल्ज़ाम तो नहीं

मुझसे तू हो जुदा, तुझसे मैं जुदा तो नहीं

हम नहीं एक अगरचे यही माना तुमने

तू रहे 'तू' सही, मैं तो कभी 'मैं' नहीं

क्यूं भला भूलती हो जान-ए-वफ़ा

रातभर ही रहेगी रात, उससे आगे तो नहीं

बातों-बातों में निकल जाएगी वो बात भी, जां

दरम्यां 'कुछ' है हमारे, 'बहुत कुछ' तो नहीं

फ़िर चलेंगे उन्हीं राहों पे संग मिलके हम

मुड़के इक देख ज़रा, मैं भी ठहरा तो नहीं

चंद बातें हैं मेरी जां, कोई इल्ज़ाम तो नहीं

मुझसे तू हो जुदा, तुझसे मैं जुदा तो नहीं।।

Friday, May 16, 2008

बेबाक आंखें


तेरी बेबाक आंखें
सवाल बहुत करती हैं
किसी सम्त शर्माती, थोड़ा झुकतीं
तो हालात बदल सकती हैं।

बेबाक आंखों में छिपे सवाल
गोकि तुम्हारी कशमकश
कभी 'तुम कौन' कभी सिर्फ मेरा ही ख्याल
भरोसे में ये कमी बहुत खलती है
तेरी बेबाक आंखें सवाल बहुत करती हैं।

इक भरोसा ही तो है प्यार
चाहो तो लम्हाभर में, वगर्ना सारी उम्र
परखते रहो, करते रहो इंतज़ार
इस इंतज़ार से तो दूरियां ही बढ़ती हैं
तेरी बेबाक आंखें सवाल बहुत करती हैं।

दूरियां बदल देती हैं मंज़िलें
राहें खुद-ब-खुद जुदा-जुदा
मुख्तसर सी बात भी बन जाती हैं मुश्किलें
ऐसे में, तबीयत भी कहां मिलती है
तेरी बेबाक आंखें सवाल बहुत करती हैं।

जिन सवालों के नहीं कोई मानी
उनको ज़ेहन-ओ-दिल से मिटाओ, या रब
बे-कशिश, बे-तआल्लुक सी टिकी बेबाक आंखें
उन आंखों को किसी रोज़ झुकाओ, या रब ।।

Sunday, May 11, 2008

प्यार का मौसम

प्यार का मौसम....कितनी जल्दी बदल गया

अभी तो बादल छाया था....अभी बरस कर चला गया।

मौसम सा यूं.......कैसे रिश्ता बदल गया

पलभर में बिजली चमकी...और आसमां खुल भी गया।

एक रंग ही....रात का आलम बदल गया

ज़ुल्फ़ के साए सिमट गए....स्याह अंधेरा घुल भी गया।

आईना हूं मैं....हम-दोनों के रिश्तों का

इक तस्वीर छपी रहती थी...वो इश्तेहार अब उतर गया।

काश यूं होता......कितनी बार यही सोचा

मैने छोड़ दिया ग़ुस्सा....तो दिलबर मेरा रूठ गया।।