Friday, April 25, 2008

मां


आज जो तुम महसूस कर रही हो अपने भीतर

एक स्पंदन।

अपनी नस-नस में दौड़ता आवेग

शायद समझ पाओ अपने पूर्णत्व को।

तुम्हारा नाम बदलेगा

जो तुम्हे देगा धरती के समान दर्ज़ा

धरती, जो संजोए है अपने भीतर अमूल्य रत्न।

तुम भी तो रत्नगर्भा हो, सबसे बड़ी।

हर पल तुम्हारी सांसों में जी रहा है एक नया जीवन

तुम उसकी जननी बनोगी,

लेकिन उसका ऋण भी तुम पर कम नहीं होगा

तुम्हारे जीवन के अंतिम सच को वही सामने लाएगा

तुम्हें पुकारेगा-मां।

मां, तुम्हारा परम वैभव, तुम्हारा विराट अस्तित्व

लेकिन वह मेरे ऊपर भी करेगा उपकार

मेरे भीतर की अस्थिरता और मन में लाएगा चिरशांति।

अब तुम होगी मां, सिर्फ मां

बेटी, प्रेयसी या पत्नी नहीं।।

No comments: