Friday, April 25, 2008
अपना-अपना रास्ता
भले समय की बात है
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि ख़ासो ख़ास हो
न देखने में आम सी
न ये कि वो चले तो
कहकशां सी रहगुज़र लगे
मगर वो साथ हो तो फिर
भला भला सफ़र लगे
न आशिक़ी जुनून की
कि ज़िंदगी अज़ाब हो
न इस क़दर सुपुर्दगी
कि बदमज़ा हों ख्वाहिशें
न इस क़दर कठोरपा
कि दोस्ती ख़राब हो
न ऐसी बेतकल्लुफ़ी
कि आइना हया करे
कभी तो बात की ख़फी
कभी सुखोद की सुख़न
कभी तो कश्त-ए-ज़ाफरां
कभी उदासियों का बन।
सुना है एक उम्र है
मुआमलाते दिल की भी
विसाल-ए-जां फ़िदा तो क्या
किस्सा-ए-जां गुसल की भी।
तो एक रोज़ क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क़ को अमर कहूं
वो मेरी ज़िद से चिढ़ गई
मैं इश्क़ का असीर था
वो इश्क़ को क़फ़स कहे
शज़र हुज़ूर नहीं कि हम
हमेशा पाक सिल रहें
न ठौर हैं कि रस्सियां
गले में मुस्लसिल रहें
मोहब्बतों की ग़ुस्सतें
हमारे दस्त-ए-ख्वां में हैं
बस एक दर से निस्बतें
शज़ान-ए-बा-वफ़ा में हैं
मैं पेंटिंग नहीं कि
एक फ्रेम में रहूं
जो मन का मीत है
उसी के प्रेम में रहूं
तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं ऐसी सोच की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं।
न उसको मुझ पे नाज़ था
न मुझको उससे ज़ोम ही
जो एक ही कोई न हो
तो क्या ग़म-ए-शिक़स्तगी
तो अपना-अपना रास्ता
हंसी-खुशी बदल लिया
वो अपनी राह चल दिया
मैं अपनी राह चल दिया।
भली सी उसकी शक्ल थी
भली सी उसकी दोस्ती
अब उसकी याद रात-दिन
नहीं, मगर कभी-कभी।।
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