Tuesday, August 5, 2008

लकड़ी का बुत



एक बुत बनकर बैठना

किसी से रूठकर

बहुत आसान है

कि कोई आए

और मनाए

या फ़िर

जानबूझकर किसी को सताने को

उससे बेख़बर, चुपचाप

एक बुत सा बैठ जाना भी नहीं है मुश्किल

कि अपनी उपेक्षा से क्षुब्ध

वो समझे तुम्हारा 'श्री'

और भरमाए तुम्हारा दिल

ये भी नहीं है तनिक मुश्किल

कि

बन जाओ बुत कि

उतारे कोई तस्वीर

गढ़े तुम्हारा रूप-लावण्य, अंग-प्रत्यंग

और बढ़ाए अपनी ख्याति की जागीर

लेकिन

एक पुरजवां महफ़िल में

सबके बीच चुपचाप

एक बुत बनकर बैठना कैसा होता है

पूछो कोई उससे

जो घिरा है कथित अपनों से

उनके व्यंग्यरूपी सवालों से

कि जनाब, कहां खोए हैं आप ?

ये सवाल कोई आमंत्रण नहीं है

बल्कि है एक घिनौनी कोशिश

उस अहसास की शिद्दत को कुछ और बढ़ाने की

कि हां,

साहिल डूब रहा है

मगर अफ़सोस साथियो !

मैं तो एक लकड़ी का बुत हूं

जो गल कर मिटने से पहले

तुम्हारे अनंत गहराइयों में दफ़न करने के बाद भी

तैरता रहेगा

सबसे ऊपर

बहुत आगे

बहुत दूर ।।

3 comments:

शोभा said...

मैं तो एक लकड़ी का बुत हूं


जो गल कर मिटने से पहले


तुम्हारे अनंत गहराइयों में दफ़न करने के बाद भी


तैरता रहेगा


सबसे ऊपर


बहुत आगे


बहुत दूर ।।

बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा, लिखते रहें.

पशुपति शर्मा said...

इस लकड़ी के बुत में बड़ी जान है भइया, ये तो न कभी गलेगा, न मिटेगा... फिर फुनग आएगा अनंत गहराइयों से और तैरता रहेगा सबसे ऊपर। बहुत आगे और बहुत दूर न भी गया तो कोई अफसोस नहीं, लेकिन पल दो पल में ही ये लकड़ी का बुत कइ बुतों में थोड़ी जान जरूर डाल जाएगा।